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एक डॉक्टर के दिल की कहानी सुनिए मनीष शर्मा की जुबानी..

एक डॉक्टर के दिल की कहानी सुनिए मनीष शर्मा की जुबानी..

।।चर्चित समाचार एजेंसी।।
।।शिवपुरी 14/07/25।।
जिस घटना ने मेरी जिंदगी बदल दी …
पास आउट होने के बाद मैंने भी सपने देखे थे 
कि एक सुंदर सी भव्य क्लीनिक होगी. 
एक रिसेप्शनिस्ट और एक नर्स होगी. 
जो मेरे मरीजों को बारी बारी से चेंबर में 
भेजेगी व मरीजो को इंजेक्शन लगाएगी। 
SBI में एकाउंट होगा, 
जिसकी पासबुक में छह अंको की संख्या 
हमेशा अंकित रहेगी। 
पर यथार्थ इतना खुरदुरा होगा 
यह सपने में भी ना सोचा था। 
इंटर्नशिप, के बाद क्लीनिक खोल ली थी। 
एक दिन की, ओ पी डी 100 पेशेंट्स से 
कम की ना थी। 
मैं भी खुश था कि सपने पूरे होने में 
ज्यादा समय नहीं लगने वाला है।  
उस दिन भरी तपती जेठ की दोपहरी थी। 
दूर गांव से एक विधवा वृद्धा अपनी 
अठारह-बीस साल की बेटी को ले कर आई. 
जिसे 'फूड पाइजनिंग' थी। 
गांव से दवा भी ली थी पर उल्टी दस्त बंद नहीं हुए। मैंने देख कर कहा, "इसको ड्रिप लगेगी तब सही होगी।" 
 जैसा कि हर गरीब मरीज पूछता है, 
उसने भी पूछा, 
"डाक्साब, कितना खर्चा हो जाएगा?"
 मैंने कुछ सोच कर बताया तीन सेलाइन बाटल तो लगेंगी तो ₹६०० का बिल बनेगा ही। 
यह बात, आज से तीस साल पहले की है, 
जब मैं स्कूटर में एक लीटर पेट्रोल पांच रुपए में पड़वाता था।
 वह बोली, "ठीक है, 
आप इलाज शुरु कीजिए मैं रुपए ले कर आती हूं।" 
 इतना कह कर वह चली गई मैंने भी उस लड़की को ड्रिप लगा दी। उसको गए आधा घंटा हुआ,  एक घंटा हुआ, फिर डेढ घंटा, हो गया 
पर वह लौट कर नहीं आई!!!! ? 
 मैं भी परेशान हो गया उस लड़की को बार बार ड्रिप निकाल टायलेट ले जाते हुए।  
दो बाटल लग चुकी थी, तीसरी लगाने जा रहा था, कि उस वृद्धा को कुछ बर्तन लिए रिक्शे पर बाजार की ओर जाते देखा।  
मन में बहुत कोफ्त हुई कि बीमार लड़की को 
छोड़ यह कहां मटरगश्ती कर रही है। 
अब उस लड़की में भी सुधार था काफी देर से टायलेट नहीं गई थी। 
तीसरी ड्रिप, भी खत्म होने बाली थी. 
तभी वह वृद्धा क्लीनिक के अंदर आई 
अपनी बेटी के सर पर हाथ फेरा और हाल पूछा।  संतुष्ट हो कर मेरे पास आई और सौ सौ के, 
छह नोट मेरे हाथ पर रख दिए। 
मैं तो भरा बैठा था, बरस पड़ा उसपर,
"ऐसे कोई मरीज को अकेला छोड़ कर जाता है?"
"मुझे और भी मरीजो को अटेंड करना होता है. 
उसे बार बार टायलेट ले जाना पड़ा और तुम रिक्शे में घूमने चल दीं। 
'छह सौ रुपए' में तुमने मुझे खरीद तो नहीं लिया. जो तुम्हारे मरीज को उठाऊं बैठाऊं भी मैं।"

वह रुआंसी होकर बोली, "मैं तो पैसे लेने गई थी।"

"इतना टाइम लगता है पैसे लाने में?"

"घर में तो पैसे थे नहीं उधार भी गांव भर में किसी से नहीं मिले तो उसकी शादी के लिए कुछ बर्तन खरीद रखे थे उनको बेच कर आपकी फीस चुकाई है।"

अब स्तब्ध, निशब्द, किंकर्तव्यविमूढ़ जो भी कह लीजिए होने की बारी मेरी थी।  😰 😰 😞😢
कुछ ही पल में, मैंने निर्णय ले लिया। 
उसको स्कूटर पर बैठाया और उस बर्तन की 
दुकान पर पहुंच गया। 
पैसे दे कर उसको वर्तन वापस दिलवाए।
😇 अब मुझे समझ आ गया था कि मेरे सपने दूसरों की कराहों पर बुने गए हैं।  
👉 बस तब से ना रिसेप्शन बन पाया, 
ना रिसेप्शनिस्ट अपाइंट हुई, ना नर्स, 
और ना ही भव्य चैंबर बन सका। 
क्योंकि अब वह "क्लीनिक" ना बन 
एक दरबार बन चुका था, फकीर का !!!  
जहां, अब पैसों से इलाज नहीं होता है। 
🙏😄😄😃
👇
कबीरा खड़ा बाजार में
लिए लकुटिया हाथ,
जो घर फूके आपना
चले हमारे साथ।।

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